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Birsa Munda Punyatithi: बिरसा मुंडा और “उलगुलान” आंदोलन: आदिवासी विद्रोह का नायक, अंग्रेजी हुकूमत और जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन छेड़ा।

 बिरसा मुंडा और “उलगुलान” आंदोलन: आदिवासी विद्रोह का नायक

 

  बिरसा मुंडा का नाम भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, विशेष रूप से आदिवासी अधिकारों के संघर्ष और अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासी विद्रोह के संदर्भ में। "उलगुलान" (विद्रोह) आंदोलन ने न केवल झारखंड क्षेत्र में बल्कि पूरे देश में आदिवासी जागरूकता और संघर्ष की नई परिभाषा स्थापित की। बिरसा मुंडा ने अपने अल्प जीवनकाल में ही अंग्रेजी हुकूमत और जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ जो आंदोलन छेड़ा, वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण अध्यायों में से एक बन गया। अंग्रेजी सरकार ने बिरसा मुंडा के विद्रोह को कुचलने के लिए बड़ी संख्या में सैनिकों को भेजा। फरवरी 1900 में, बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें रांची जेल में बंद कर दिया गया। 9 जून 1900 को जेल में संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु का कारण स्पष्ट नहीं था, लेकिन यह माना जाता है कि उन्हें धीमा जहर दिया गया था।

प्रारंभिक जीवन और संघर्ष की पृष्ठभूमि

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के रांची जिले के उलीहातु गांव में हुआ था। वे मुंडा आदिवासी समुदाय से थे, जो अपनी समृद्ध संस्कृति और परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। उनके माता-पिता, सुगना मुंडा और करमी हातू, अत्यंत गरीब थे, लेकिन उन्होंने बिरसा को अपने पारंपरिक मूल्यों और धर्म के प्रति सजग रखा।

सामाजिक और धार्मिक असंतोष

बिरसा मुंडा का बचपन ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और जमींदारी व्यवस्था की कठोरताओं के बीच बीता। आदिवासियों की भूमि पर जमींदारों और ठेकेदारों द्वारा कब्जा कर लिया जाता था, और उन्हें अपने ही भूमि पर बंधुआ मजदूर के रूप में काम करने पर मजबूर किया जाता था। इसके अलावा, मिशनरी गतिविधियों ने पारंपरिक आदिवासी धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया। इन सभी ने बिरसा के मन में असंतोष और विद्रोह की भावना को जन्म दिया।

उलगुलान आंदोलन की शुरुआत

1890 के दशक की शुरुआत में, बिरसा ने एक धार्मिक नेता के रूप में उभरना शुरू किया, जो खुद को भगवान का अवतार मानता था। उन्होंने 'बिरसाइत' नामक एक नया धर्म शुरू किया, जिसमें पारंपरिक मुंडा धर्म का पुनरुत्थान और सामाजिक सुधारों पर बल दिया गया। उन्होंने आदिवासियों से कहा कि वे शराब, गोमांस और बुरी आदतों को छोड़ दें और अपनी पारंपरिक संस्कृति की ओर लौटें।

भूमि अधिकारों के लिए संघर्ष

1895 में, बिरसा ने मुंडाओं के भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करना शुरू किया। उन्होंने आदिवासियों को अंग्रेजी सरकार और जमींदारों के खिलाफ संगठित किया। उन्होंने खुलकर कहा कि आदिवासी भूमि पर बाहरी लोगों का कोई अधिकार नहीं है और उन्हें अपनी जमीन वापस मिलनी चाहिए।

विद्रोह की चिंगारी

1899 में, बिरसा मुंडा ने "उलगुलान" या महान विद्रोह की शुरुआत की। यह विद्रोह भूमि अधिकारों के साथ-साथ आदिवासी पहचान और स्वतंत्रता के लिए था। बिरसा ने अपने अनुयायियों के साथ मिलकर अंग्रेजी अधिकारियों और जमींदारों के खिलाफ कई संघर्ष किए। उन्होंने अपने अनुयायियों को हथियार उठाने और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए प्रोत्साहित किया।

अंग्रेजों और जमींदारों के खिलाफ संघर्ष

बिरसा के नेतृत्व में, मुंडाओं ने अंग्रेजों और जमींदारों की संपत्तियों पर हमला किया और कई पुलिस थानों और सरकारी भवनों को ध्वस्त कर दिया। यह आंदोलन तेजी से फैल गया और पूरे क्षेत्र में व्यापक रूप से समर्थन प्राप्त किया। बिरसा की करिश्माई नेतृत्व और उनकी साहसिक कार्रवाइयों ने उन्हें "धरती आबा" (पृथ्वी का पिता) का दर्जा दिलाया।

बिरसा की गिरफ्तारी और मृत्यु

 अंग्रेजी सरकार ने बिरसा मुंडा के विद्रोह को कुचलने के लिए बड़ी संख्या में सैनिकों को भेजा था। फरवरी 1900 में उन्हें रांची जेल में बंद कर दिया गया। 9 जून वर्ष 1900 में उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में  मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु का कारण स्पष्ट नहीं था, लेकिन यह माना जाता है कि उन्हें धीमा जहर दिया गया था।

आंदोलन की स्थायी छाप

बिरसा मुंडा की मृत्यु के बाद भी, उनका आंदोलन और उनकी शिक्षाएं जीवित रहीं। उलगुलान आंदोलन ने आदिवासियों को एक नई पहचान और जागरूकता दी। 1908 में, ब्रिटिश सरकार को मुंडाओं की भूमि को संरक्षित करने के लिए 'छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट' (CNT Act) लागू करना पड़ा, जो आदिवासी भूमि को बाहरी लोगों के कब्जे से बचाने के लिए था।

संघर्ष की प्रेरणा दे गये

बिरसा मुंडा का उलगुलान आंदोलन भारतीय इतिहास में आदिवासी संघर्ष और स्वाभिमान की एक महत्वपूर्ण घटना है। उनके साहस और नेतृत्व ने न केवल अंग्रेजी शासन को चुनौती दी बल्कि आदिवासी समुदायों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी। आज भी, बिरसा मुंडा का नाम आदिवासी अधिकारों और स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में सम्मानित किया जाता है, और उनकी विरासत भारतीय समाज में समता और न्याय के लिए संघर्ष के रूप में जीवित है।

डिस्क्लेमर: यह लेख ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है और स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार लिखा गया है। इसका उद्देश्य सिर्फ शिक्षा और जानकारी प्रदान करना है। किसी भी प्रकार की त्रुटि या विवाद के लिए सतपुडा टुडे न्‍यूज  जिम्मेदार नहीं हैं।

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